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सांविधानिक विधि
दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम, 1946 (DSPE) अधिनियम की धारा 6A अप्रवर्तनीय
« »12-Sep-2023
केंद्रीय जाँच ब्यूरो बनाम डॉ. आर. आर. किशोर "एक बार जब किसी विधि को असंवैधानिक घोषित कर दिया जाता है, तो उसे अनुच्छेद 13(2) के मद्देनजर शुरू से ही शून्य, अकृत, अप्रवर्तनीय और गैर-स्थायी माना जायेगा।" न्यायमूर्ति संजय किशन कौल, संजीव खन्ना, अभय एस. ओका, विक्रम नाथ और जे. के . माहेश्वरी |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति संजय किशन कौल, न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, अभय एस. ओका, विक्रम नाथ और जे. के. माहेश्वरी की संवैधानिक पीठ ने कहा कि दिल्ली विशेष पुलिस स्थापन अधिनियम, 1946 (DSPE) की धारा 6A पूरी तरह से अकृत और शून्य है।
- उच्चतम न्यायालय ने केंद्रीय जाँच ब्यूरो बनाम डॉ. आर. आर. किशोर मामले में यह टिप्पणी दी।
पृष्ठभूमि
- यह मामला केंद्र सरकार की पूर्व स्वीकृति के बिना दिल्ली विशेष पुलिस स्थापन अधिनियम, 1946 (DSPE) के तहत केंद्रीय जाँच ब्यूरो (CBI) द्वारा की गई गिरफ्तारी से संबंधित है।
- चूँकि यह विधि भ्रष्टाचार के मामलों में संयुक्त सचिव और उससे ऊपर के स्तर के अधिकारी की गिरफ्तारी के मामले में पूर्व मंजूरी लेना अनिवार्य करता है।
- यह दलील दी गई कि गिरफ्तारी दिल्ली विशेष पुलिस स्थापन अधिनियम, 1946 (DSPE) की धारा 6A (2) के तहत की गई है।
- दिल्ली उच्च न्यायालय ने माना कि उक्त धारा 6A इस मामले में लागू नहीं होगी और सीबीआई को दोबारा जाँच के लिये केंद्र सरकार की मंजूरी लेने का निर्देश दिया गया।
- सुब्रमण्यम स्वामी बनाम निदेशक, सीबीआई और अन्य (2014) के मामले में धारा 6A को असंवैधानिक घोषित कर दिया गया।
- सुब्रमण्यम स्वामी मामले में दिये गए फैसले और उसके पूर्वव्यापी प्रभावों पर निर्णय लेने के लिये मामले को एक संवैधानिक पीठ के पास भेजा गया था।
न्यायालय की टिप्पणी-
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि यह बिल्कुल स्पष्ट है कि एक बार जब किसी विधि को संविधान के भाग III का उल्लंघन करते हुए असंवैधानिक घोषित कर दिया जाता है, तो इसे भारत के संविधान के अनुच्छेद 13 (2) के मद्देनजर शुरू से ही शून्य, अकृत, अप्रवर्तनीय और गैर-स्थायी माना जायेगा।
- न्यायालय ने यह भी कहा कि सुब्रमण्यम स्वामी के मामले में संविधान पीठ द्वारा की गई घोषणा पूर्वव्यापी प्रभाव से लागू होगी।
- इसलिये, दिल्ली विशेष पुलिस स्थापन अधिनियम, 1946 (DSPE) की धारा 6A को इसके सम्मिलन की तिथि अर्थात् 11 सितंबर 2003 से लागू नहीं माना जाता है।
उत्तर-संवैधानिक विधियों की स्थिति
- भारत के संविधान, 1950 का अनुच्छेद 13 संविधान के भाग III के साथ पूर्व और बाद के संवैधानिक विधि की स्थिरता से संबंधित है।
- अनुच्छेद 13 (2) में कहा गया है कि राज्य ऐसा कोई विधि नहीं बनाएगा जो इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों को छीनता या कम करता हो और इस खंड के उल्लंघन में बनाया गया कोई भी विधि उल्लंघन की सीमा तक शून्य होगा।
- अनुच्छेद का खंड 2 उन विधियों को अमान्य करता है जो संविधान के प्रारंभ के बाद बनाए गए थे और संविधान के भाग III के लिये अपमानजनक हैं।
- इन विधिों को आमतौर पर उत्तर संवैधानिक विधि के रूप में जाना जाता है।
- अनुच्छेद 13(2) मौलिक अधिकारों के लिये एक मज़बूत सुरक्षा के रूप में कार्य करता है।
- यह सुनिश्चित करता है कि राज्य, अपनी विधायी क्षमता में, संविधान में निहित न्याय, समानता और स्वतंत्रता के मूल सिद्धांतों का उल्लंघन नहीं करता है।
- अनुच्छेद 13(2) केवल "राज्य" द्वारा बनाए गए विधिों पर लागू होता है जिसमें केंद्र सरकार, राज्य सरकारें और स्थानीय या अन्य प्राधिकरण शामिल हैं।
- इसका विस्तार निजी व्यक्तियों या संस्थाओं के कार्यों तक नहीं होता जब तक कि वे राज्य के अभिकर्त्ता के रूप में कार्य नहीं कर रहे हों।
- संविधान के 44 वें संशोधन ने स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 13(2) के तहत 'विधि' में अनुच्छेद 368 के तहत संवैधानिक संशोधन शामिल हैं।
- उच्चतम न्यायालय ने कई मामलों में अपने फैसलों के माध्यम से स्पष्ट किया कि संविधान के बाद के विधि जिन्हें किसी न्यायालय द्वारा अमान्य घोषित कर दिया गया है, वे इसके प्रवर्तन से अमान्य होंगे।
ऐतिहासिक मामले
- महेंद्र लाल जैनी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य (वर्ष 1968):
- उच्चतम न्यायालय ने माना कि संविधान के बाद कोई भी विधि भाग III के प्रावधानों का उल्लंघन करके नहीं बनाया जा सकता है और इसलिये उस सीमा तक विधि, हालांकि बनाया गया है, अपनी स्थापना से ही अमान्य है।
- न्यायालय ने माना कि "संविधान के बाद के सभी विधि जो अनुच्छेद 13 (2) के पहले भाग में निहित अनिवार्य निषेधाज्ञा का उल्लंघन करते हैं, उतने ही शून्य हैं जितने कि विधायी क्षमता के बिना पारित विधि है।"
- गुजरात राज्य और अन्य बनाम श्री अंबिका मिल्स लिमिटेड (वर्ष 1974):
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि "जब अनुच्छेद 13(2) 'शून्य' अभिव्यक्ति का उपयोग करता है, तो इसका अर्थ केवल उन व्यक्तियों के खिलाफ शून्य हो सकता है जिनके मौलिक अधिकार विधि द्वारा छीन लिये गए हैं या संक्षिप्त किये गए हैं।"
- मणिपुर राज्य एवं अन्य बनाम सुरजाकुमार ओकराम और अन्य (वर्ष 2022):
- उच्तम न्यायालय ने निम्नलिखित सिद्धांत निर्धारित किये:
- एक सक्षम विधायिका द्वारा बनाया गया विधि तब तक वैध होता है जब तक कि उसे न्यायालय द्वारा असंवैधानिक घोषित नहीं कर दिया जाता।
- किसी विधि को न्यायालय द्वारा असंवैधानिक घोषित किये जाने के बाद, यह सभी उद्देश्यों के लिये अमान्य है।
- विधि की घोषणा में, पूर्व निर्णयों या असंवैधानिक ठहराए गए विधियों के तहत पिछले लेनदेन को बचाने के लिये इस न्यायालय द्वारा पूर्वव्यापी ओवररूलिंग के सिद्धांत को लागू किया जा सकता है।
- किसी विधि को असंवैधानिक घोषित किये जाने के बावजूद, संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपनी शक्ति का प्रयोग करके न्यायालय द्वारा राहत दी जा सकती है।
- उच्तम न्यायालय ने निम्नलिखित सिद्धांत निर्धारित किये:
पूर्वव्यापी अधिनिर्णय का सिद्धांत
- इस सिद्धांत की उत्पत्ति वर्ष 1900 के प्रारंभ में अमेरिकी न्यायशास्त्र से हुई है।
- यह न्यायालयों को पूर्वव्यापी प्रभाव न देकर भविष्य के निर्णयों पर उलटफेर के प्रतिकूल प्रभावों को सीमित करते हुए पिछले निर्णयों को पलटने की अनुमति देता है।
- इसका अर्थ होगा कि फैसले पूर्वव्यापी प्रभाव से लागू होंगे।
- भारतीय न्यायशास्त्र ने उच्चतम न्यायालय द्वारा आई. सी. गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य (वर्ष 1967) में दिये गए फैसले के तहत इस सिद्धांत को अपनाया।
- इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि उक्त सिद्धांत केवल उच्चतम न्यायालय द्वारा ही लागू किया जा सकता है।